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A project of the Non-profit International Press Syndicate Group with IDN as the Flagship Agency in partnership with Soka Gakkai International in consultative status with ECOSOC

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Photo: Fred Kuwornu. Credit: facebook.com/fred.kuwornu

मानव तस्करी का जाल

*फ्रैड कूवोरनू के विचार-मत *

न्यूयॉर्क (आईडीएन)- मानव तस्करी से विभिन्न माफिया विश्वभर में 150 बिलीयन डॉलर अर्जित करते हैं, उसमें से 100 बिलियन (अरब) डॉलर अफ्रीकन लोगों की तस्करी से आते हैं। हर तस्करी के जाल में फंसी अफ्रीकन महिला नाईजीरियन माफिया के लिए 60,000 यूरो की आसामी होती है। 10,000 तस्करीयाँ इटली में हर साल 600 मिलीयन यूरो माफिया को देती हैं। कोई भी अफ्रीकन जानबूझ कर इस दलदल में नहीं फंसेगा यदि उन्हें पता हो कि यूरोप में क्या भयावह सच्चाई उनका ईंतजार कर रही है।

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भारत के जनसाधारण ने प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को परास्त करना शुरू कर दिया है

सुधा रामचंद्रन द्वारा

बैंगलोर (आईडीएन) – 32 वर्षिय राजेस्वरी सिंह ने विश्व पृथ्वी दिवस पर एक छः-सप्ताह तक चलने वाले मैराथन अभियान की शुरुआत की, जिसमे वे एक सामान्य संदेश ‘प्लास्टिक का प्रयोग करना बंद करें’ को फैलाते हुए, 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर नई दिल्ली पहुँचने के लिए पश्चिम भारत के वड़ोदरा से तकरीबन 1,100 किलोमीटर की पदयात्रा करेंगी, और इस पदयात्रा के दौरान उनका जोर पूरे रास्ते किसी भी प्रकार के प्लास्टिक की पैकिंग वाले पेय पदार्थों या खाद्य पदार्थों का प्रयोग नहीं करने पर रहेगा।

वास्तव में, उन्होंने पिछले दशक से किसी भी प्रकार के प्लास्टिक का प्रयोग नहीं किया है। इसके अतिरिक्त, उनका संदेश इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस के विषय – ‘प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को परास्त करें’ (‘Beat plastic pollution’) – को स्वर प्रदान करता है। विश्व में 10 सबसे अधिक प्लास्टिक का प्रयोग करने वाले देशों में स्थान रखने वाला भारत, इस बार वैश्विक मेज़बान की भूमिका निभा रहा

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नदियों को जोड़कर सबके लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु सरकार की योजना पर भारत में बहस

सुधा रामचंद्रन द्वारा

बैंगलोर (आईडीएन) – जैसे ही एक और झुलसाने वाली गर्मी द्वारा सारे भारत को अपनी गिरफ्त में लेने का भय सताने लगा और नदियाँ सूखने लगीं, देश की जल संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए सरकार के इंटरलिंकिंग ऑफ रिवर्स (आईएलआर) कार्यक्रम के बारे में एक वाद-विवादपूर्ण बहस आरंभ हो गई है।

देश में जल की कमी और जल के असमान वितरण की और ध्यान आकर्षित करते हुए, इस कार्यक्रम के एक प्रबल समर्थक, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, ने हाल ही में इंगित किया कि जहाँ कई नदियों में बाढ़ आ रही है वहीं अन्य सूख रही हैं। उन्होंने कहा, “अगर इंटर-लिंकिंग (नदियों को जोड़ा जाता है) की जाती है, तो इस समस्या का समाधान हो सकता है”।

भारत की नदियों में जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत अधिक अतंर है। राष्ट्रीय जल मिशन की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, साबरमती के जलाशय में केवल 263 घन मीटर की तुलना में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना प्रणाली में 2010 में

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Photo: John Bob Ranck, Chief Executive Officer and President at Orbis International. Credit: Naimul Haq | IDN-INPS

बांग्लादेश और अन्य देशों के लिए – आँखों की देखभाल क्यों महत्त्वपूर्ण है

द्वारा नइमुल हक

ढाका (आईडीएन) – ऑर्बिस इंटरनेशनल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और अध्यक्ष जॉन बॉब रांक जिन्हें बॉब के नाम से भी जाना जाता है, हाल ही में एक विशेष मिशन के सिलसिले में बांग्लादेश आए थे। उन्होंने कुछ ऐसे अस्पतालों का दौरा किया जहाँ बचे जा सकने वाली (परिहार्य) दृष्टिहीनता को दूर करने के बांग्लादेश के प्रयासों में एक साझेदार के रूप में ऑर्बिस सहायता दे रहा है।  

संयुक्त राज्य वात्य सेना के सेवानिवृत्त बिग्रेडियर जनरल बॉब बांग्लादेश में अस्पतालों को शिक्षण या फ्लाइंग आई हॉस्पिटल (एफईएच) प्रशिक्षण कार्यक्रम के नाम से बेहतर जाने जाने वाली यादगार यात्रा के कुछ हफ्तों के बाद बांग्लादेश आए थे।  

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‘स्मार्ट खेत’ थाई कृषि को पर्याप्त तथा चिरस्थायी बना रहे हैं

कलिंगा सेनेविरातने द्वारा

चन्थाबुरि, उत्तर-पूर्व थाईलैंड (idn) – राज्य की जीवन शक्ति – कृषि और उसके छोटे पैमाने के किसानों को निकट भविष्य में चिरस्थायी बनाने के लिए ‘पर्याप्तता अर्थव्यवस्था’ की बौद्ध अवधारणा में एकीकृत आधुनिक (सूचना संचार प्रौद्योगिकी ICT) द्वारा समर्थित “स्मार्ट खेत” फार्मूले के तहत थाई किसान बुनियादी बातें अपना रहे हैं।

अपनी प्रचुर बहु-फसल डुरियन खेती में यहां IDN से बात करते हुए किसान सिटिपॉन्ग यनासो का कहना है कि “कुछ किसान रासायनिक उर्वरकों का उपयोग [अपने पेड़ों से] अधिक फल पाने के लिए करते हैं (लेकिन) उनके तने तीन से पांच साल में मर जाते हैं। हम यहाँ जैविक उर्वरक का उपयोग करते हैं और हमारे तने 30 वर्षों तक चलेंगे”।

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Photo: A general view of the Vienna UN Conference. Credit: Robert Bosch AG/APA-Fotoservice/Schedl

युद्धक्षेत्र के रूप में निकाय – संघर्षों के दौरान खतरे में महिलाएं

जूलिया ज़िमरमैन द्वारा*

वियना (IDN) – जब युद्ध और इसके निहित खतरों के बारे में सोचते हैं, तो जेहन में आने वाला पहला ख़याल शायद युद्ध के मैदान पर मौत और उसके साथ होने वाली मानव जीवन की क्षति का होता है; हालांकि, केवल सैनिक ही युद्ध के शिकार नहीं होते हैं। नागरिक भी बहुत प्रभावित होते हैं, और इसका प्रभाव विशेष रूप से महिलाओं के लिए विनाशकारी हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र वियना सम्मेलन (ACUNS UN Vienna conference) में, इस्लाम एच बल्ला, यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिसआर्मामेण्ट अफेयर्स (UNODA) के प्रमुख, ने कहा कि किसी संघर्ष से पहले, इसके दौरान तथा इसके बाद में महिलाओं द्वारा झेले जाने वाली व्यवस्थित हिंसा को संबोधित करना अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए अनिवार्य है। उन्होंने मेजर जनरल पैट्रिक गैमर्ट का हवाला देते हुए कहा, जिन्होंने 2008 में कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य के संयुक्त राष्ट्र मिशन (UN Mission to the Democratic Republic of Congo) के उप-सेना कमांडर रहते हुए

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रोड़ों के बावजूद तंज़ानिया द्वारा लिंग समानता को समर्थन

+किज़ितो मकोये द्वारा

दार एस सलाम (आईडीएन) – लैंगिक समानता को प्रोत्साहन देने के प्रयासों के बावजूद, तंज़ानिया में स्त्रियाँ और लड़कियाँ अब भी अधिकारहीन और मोटे तौर पर बेकार नागरिक हैं – जो एक पक्षपातपूर्ण पुरुष-प्रधान प्रणाली के कारण अक्सर पुरुष नागरिकों के भेदभाव और हिंसा का शिकार बनती हैं तथा उत्तरजीविता के कगार पर खड़ी हैं।

तथापि, संयुक्त राष्ट्र संघ के संधारणीय विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals – SDGs) के अनुरूप स्त्रियों को सशक्त बनाने के लिए विभिन्न पहलें लागू की जा रही हैं, हालांकि उनको अब भी अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुँचने से रोकने वाले अवरोधों का सामना करना पड़ रहा है।

अन्य चीजों में, SDG स्त्रियों के सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, उत्तम काम और राजनीतिक और आर्थिक निर्णय प्रक्रियाओं में उचित प्रतिनिधित्व का आह्वान करते हैं, तथा इस दिशा में इस पूर्व अफ्रीकी देश में फिलहाल जारी कुछ पहलें निम्नानुसार हैं।

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फोटो: कुतुप्पलोंग शरणार्थी शिविर, कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश।यह शिविर उन तीन शिविरों में से एक है जिनमें बर्मा में अंतर-सांप्रदायिक हिंसा से बच कर भागे हुए लगभग 300,000 रोइंग लोग रह रहे हैं। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स

म्यांमार “बंगाली” समस्या को हल करने के लिए श्रीलंका से सीख सकता है

फोटो: कुतुप्पलोंग शरणार्थी शिविर, कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश।यह शिविर उन तीन शिविरों में से एक है जिनमें बर्मा में अंतर-सांप्रदायिक हिंसा से बच कर भागे हुए लगभग 300,000 रोइंग लोग रह रहे हैं। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स

जयश्री प्रियालाल* द्वारा

सिंगापुर (आईडीएन) – रोहंगिया संकट और शरणार्थियों का भारी संख्या में बांग्लादेश की ओर प्रवाह का मुद्दा वर्तमान में मीडिया में छाया हुआ है। एक श्रीलंकाई के रूप में मैं पूर्व में श्रीलंका और वर्तमान में म्यांमार में इस राष्ट्रीयता के विवाद की समानता को समझ सकता हूँ। भारत के साथ इस संकट को हल करने का श्रीलंका का दृष्टिकोण म्यांमार द्वारा अनुसरण के लिए एक रूपरेखा प्रदान कर सकता है।

1948 में जब श्रीलंका ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ तब इस द्वीपीय राष्ट्र में करीब 10 लाख तमिल थे जिन्हें श्रीलंका में “भारतीय तमिल” कहा जाता था। इन निम्नतम दलित वर्ग के लोगों को अंग्रेजों द्वारा सिंहली किसानों की जब्त की हुई भूमि पर लगाए गए चाय बागानों में काम करने के लिए दक्षिण भारत से लाया गया था, जहाँ कि उन सिंहली किसानों ने काम करने से इनकार कर दिया था। इस प्रकार इन तमिलों की उपस्थिति का सिंहलियों द्वारा जबर्दस्त विरोध किया गया। अंग्रेज़ों ने

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अफ्रीका के आसपास के महासागर संकट में

जेफरी मोयो द्वारा

हरारे (आईडीएन) – सुबह होते ही, पेटिना ड्यूबे अपने घर से निकलती हैं, उनके सर पर उस कचरे से भरी बोरी है जो उनके घर के आँगन में पड़ा हुआ था क्योंकि रिपोर्ट के अनुसार ज़िम्बाब्वे की राजधानी हरारे में नगरपालिका के कचरा एकत्रित करने वालों के पास अपना कार्य करने के लिए ईंधन उपलब्ध नहीं है।

43 वर्ष की ड्यूबे जो हरारे के उच्च घनत्व वाले उपनगर वॉरेन पार्क की निवासी हैं को जाहिर तौर पर कोई परवाह नहीं है कि उसके द्वारा फेंका जाने वाला कचरा कहाँ जाएगा। ड्यूबे कहती हैं “मैं वाकई में इस बात को ले कर चिंतित नहीं हूं कि यह कचरा कहाँ जाएगा; मैं बस इसे पास ही स्थित नदी के पास फेंक दूँगी।”

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A beach at Funafuti atoll, Tuvalu, on a sunny day. / Wikimedia Commons.

विश्व के सबसे गरीब और सबसे संवेदनशील देश जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही चाहते हैं

रमेश जौरा द्वारा

बॉन (आईडीएन) – दुनिया के 48 सबसे गरीब और जलवायु परिवर्तन के संबंध में सबसे संवेदनशील देश इस बात को ले कर खासे चिंतित हैं कि क्या आने वाले महीनों में 2015 में पेरिस में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते के सभी पहलुओं को लागू किया जाएगा।

इस बात को सर्वाधिक अविकसित देशों के समूह (एलडीसी) के अध्यक्ष, इथियोपिया के गेब्रू जेम्बर एन्दलेव ने बॉन में दो सप्ताह की संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता के अंतिम दिन 18 मई को जोर दे कर कहा। इस वार्ता में 140 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

एलडीसी उन देशों का समूह है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने उनकी न्यून सकल राष्ट्रीय आय, कमज़ोर मानवीय संसाधन और अत्यधिक आर्थिक असुरक्षा के आधार पर “सर्वाधिक अविकसित” देशों के रूप में वर्गीकृत किया हुआ है।

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