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नदियों को जोड़कर सबके लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु सरकार की योजना पर भारत में बहस

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सुधा रामचंद्रन द्वारा

बैंगलोर (आईडीएन) – जैसे ही एक और झुलसाने वाली गर्मी द्वारा सारे भारत को अपनी गिरफ्त में लेने का भय सताने लगा और नदियाँ सूखने लगीं, देश की जल संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए सरकार के इंटरलिंकिंग ऑफ रिवर्स (आईएलआर) कार्यक्रम के बारे में एक वाद-विवादपूर्ण बहस आरंभ हो गई है।

देश में जल की कमी और जल के असमान वितरण की और ध्यान आकर्षित करते हुए, इस कार्यक्रम के एक प्रबल समर्थक, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, ने हाल ही में इंगित किया कि जहाँ कई नदियों में बाढ़ आ रही है वहीं अन्य सूख रही हैं। उन्होंने कहा, “अगर इंटर-लिंकिंग (नदियों को जोड़ा जाता है) की जाती है, तो इस समस्या का समाधान हो सकता है”।

भारत की नदियों में जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत अधिक अतंर है। राष्ट्रीय जल मिशन की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, साबरमती के जलाशय में केवल 263 घन मीटर की तुलना में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना प्रणाली में 2010 में जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 20,136 घन मीटर थी।

देश के उत्तर और उत्तर-पूर्व की नदियों के विपरीत, जिनमे हिमालय की हिमनदियों से जल आता है, प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ अनियमित वर्षा-ऋतु पर निर्भर करती हैं। इसके परिणामस्वरुप, जहाँ गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना जलाशय के पूर्वी हिस्से में बार-बार बाढ़ आती है, वहीं पश्चिमी और दक्षिणी भारत की नदियों में जल का अभाव रहता है। आईएलआर कार्यक्रम को जल वितरण की इस असमानता का समाधान करने के लिए तैयार किया गया है।

नदियों को जोड़ने का विचार नया नहीं है; वर्ष 1858 में, एक अंग्रेज़ अभियंता ने देश के भीतरी भागों में नौपरिवहन को बेहतर बनाने के लिए भारत की नदियों को जोड़ने की एक योजना प्रस्तुत की थी। जल के असमान भौगोलिक वितरण का समाधान करने के लक्ष्य के साथ इस योजना को कुछ बदलावों के साथ 1970 और 1980 के दशकों में पेश किया गया था किन्तु इनमे से कोई भी निर्माता समिति के आगे नहीं बढ़ पायीं।

वर्ष 2002 में जब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नई दिल्ली में सत्ता में आई, केवल तब जाकर नदियों को जोड़ने पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाने लगा। इसने इस कार्यक्रम को बहुत जोर-शोर के साथ आरंभ किया, लेकिन उसके बाद यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स (यूपीए, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) की सरकार के द्वारा इस विचार का समर्थन नहीं करने के कारण इस कार्यक्रम को एक दशक के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वर्ष 2014 में बीजेपी के सत्ता में लौटने के साथ, आईएलआर कार्यक्रम सरकार की प्रमुख योजना के रूप में उभर कर सामने आया है।

मौटे तौर पर, इस कार्यक्रम के दो संघटक हैं: 14 संधियों (जोड़ों) सहित हिमालय की नदियों का संघटक और 16 संधियों (जोड़ों) सहित प्रायद्वीपीय नदियों का संघटक। इस योजना के अंतर्गत लगभग 15,000 किलोमीटर की नहरें, और 3,000 बड़े व छोटे बाँध तथा भण्डारण हेतु ढाँचों का निर्माण करवाया जाएगा।

कागज़ पर यह बहुत आसान प्रतीत होता है। यद्यपि, इसका क्रियान्वयन करना जटिल है क्योंकि जल को विभिन्न प्रकार के ज़मीनी इलाकों और ऊँचाई वाली स्थानों से दिशा प्रदान करते हुए लाना होगा। इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार को नदियों को जोड़ने के लिए विभिन्न राज्यों को राज़ी करना होगा। नहरों और भण्डारण हेतु ढाँचों के लिए स्थान देने के लिए लोगो द्वारा अपनी ज़मीन देने की संभावना नहीं है।

भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय में केन्द्रीय जल आयोग, के सेवा-निवृत्त सदस्य, चेतन पंडित के अनुसार, ‘अनुमान है कि भारत के लिए इस कार्यक्रम को पूरा करने की लागत यूएस डॉलर 87 बिलियन आएगी, “एक मूल्य जो इसके अनुरूप है”‘। क्योंकि इसके द्वारा “आवश्यकता से अधिक” जल से ओतप्रोत नदियों से जल के “अभाव” वाली नदियों तक जल को दिशा देते हुए ले जाने की परिकल्पना की गई है, यह संभव है कि इससे बाढ़ एवं सूखे का बेहतर ढ़ंग से प्रबंधन किया जा सकेगा।

इसके अतिरिक्त, जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार, यह अपेक्षा है कि इससे अतिरिक्त 350 लाख हैक्टेयर भूमि का सिंचन किया जा सकेगा, जलविद्युत के उत्पादन में करीब 34,000 मेगावॉट तक की बढ़ोत्तरी हो सकेगी और सहज रूप से नौपरिवहन करने हेतु सहायता प्राप्त हो सकेगी।

हालांकि, आईएलआर कार्यक्रम के कई आलोचक हैं। कई लोगों ने उस मूलभूत आधार-वाक्य को चुनौती दी है जिसपर यह आधारित है अर्थात् “आवश्यकता से अधिक” जल वाली और जल के “अभाव” वाली नदियों का अस्तित्व।

चिरस्थायी विकास के दृष्टिकोण के साथ जल से संबंधित मामलों पर कार्य करने वाले एक एनजीओ, मंथन अध्ययन केंद्र के संस्थापक, श्रीपद धर्माधिकारी के अनुसार, “आवश्यकता से अधिक” जल और जल के “अभाव” वाली नदियों की अवधारणाएं “पूर्णतया अवैज्ञानिक और अतार्किक” हैं।

आईडीएन को इसके बारे में समझाते हुए उन्होंने इंगित किया कि “ना तो ‘आवश्यकता से अधिक’ जल और नाही जल का “अभाव” – बल्कि अपने अद्वितीय पारिस्थितिक तंत्र को बनाए और बचाए रखने के लिए केवल प्रत्येक नदी को अपने प्राकृतिक प्रवाह के परिमाण और स्वरुप की ही आवश्यकता है।

धर्माधिकारी ने कहा, “आईएलआर के संदर्भ में प्रयोग में लिए गए ‘आवश्यकता से अधिक’ और ‘अभाव’ के विचार, से पारिस्थितिकी विज्ञान और पर्यावरण का क्या तात्पर्य है इस बारे में जानकारी का सम्पूर्ण अभाव होने और नदियों को (केवल) मनुष्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जल का वहन करने वाले माध्यमों के रूप में समझने के एक अत्यधिक नरकेन्द्रित दृष्टिकोण के होने का संकेत मिलता है।”

भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, दिल्ली, में प्राध्यापक, अश्वनी गोसाईं, ने आईएलआर कार्यक्रम पर पर्यावरण परिवर्तन के कारण पड़ सकने वाले प्रभावों की और ध्यान आकर्षित किया है। अगर हिमालय की नदियों में हिमनदी के खण्डों और जल के आयतन में कमी आती है तो, “आवश्यकता से अधिक” जल वाली नदियाँ “दानदाता नदियाँ” नहीं बनी रह सकेंगी।

धर्माधिकारी चेताते हैं कि, “आर्थिक लागत के अलावा, आईएलआर के कारण अपरिहार्य रूप से समाज एवं पर्यावरण के संबध में “गंभीर” कीमत चुकानी पड़ेगी, क्योंकि बड़े बाँधों और जल के पथांतरणों के कारण सैंकड़ों व हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा, प्रवाह की दिशा की ओर की नदियाँ सूख जायेंगी, जंगल डूब जायेंगे और देने वाली नदी और लेने वाली नदी, दोनों की पारिस्थितिकी बदल जायेगी।”

जल संरक्षणकर्ता राजेन्द्र सिंह नदी की “अनूठी वनस्पतियों व जीव-जंतुओं की और ईशारा करते हुए चेतावनी देते हैं कि नदियों को जोड़ने और विभिन्न प्रकार के जल के आपस में मिलने पर ये नष्ट हो जायेंगे।”

इस प्रकार के विनाश के शुरूआती चिन्ह कृष्णा नदी में दिखाई देते हैं। वर्ष 2015 में गोदावरी और कृष्णा नदियों को जोड़ने के बाद, कृष्णा नदी में नहीं पायी जाने वाली, आर्मर्ड कैटफ़िश परिवार से संबंध रखने वाली माँसाहारी मछलियों की संख्या इस नदी में बढ़ती जा रही है। ये दूसरी मछलियों को डराकर भगा देती हैं, और यहाँ तक कि उन्हें खा भी जाती हैं। इससे स्थानीय मछुआरों की आजीविका पर प्रभाव पड़ रहा है।

क्योंकि यह संभावना है कि आईएलआर के कारण लोग विस्थापित होंगें और उनकी आजीविकाएं नष्ट हो जायेंगी, जिसके कारण अशांति फैलेगी और झगड़े बढ़ेंगे। लगता है कि इसके कारण अंतर-राज्यीय संघर्ष भी भड़क सकता है।

हो सकता है कि कोई “आवश्यकता से अधिक” जल वाली नदियों वाला राज्य अन्य राज्यों की नदियों से अपने राज्य की नदियों को जोड़ना नहीं चाहे। उदहारण के लिए, उड़ीसा सरकार महानदी-गोदावरी को जोड़ने के खिलाफ है क्योंकि उसे भय है कि आने वाले दशकों में महानदी में जल का गंभीर रूप से अभाव पैदा हो सकता है। जिस सीमा तक मणिभद्र बाँध के द्वारा भूमि को जलमग्न किया गया है, इस विषय पर भी वह चिंतित है। क्योंकि महानदी-गोदावरी की संधि (जोड़) अन्य नौ संधियों के लिए “एक मातृ संधि” है, उड़ीसा के आईएलआर का भाग बनने से मना करने के कारण आईएलआर के प्रायद्वीपीय संघटक का नाश हो सकता है।

अंतरराष्ट्रीय नदियों के पथांतरण के भारत के पड़ोसियों के संबंध में निहितार्थ और भी अधिक चिंताजनक हैं। “आवश्यकता से अधिक” जल से ओतप्रोत गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना जलाशय से जल का प्रस्तावित पथांतरण करने से, नदी के निचले तट पर स्थित, बांग्लादेश में जल का प्रवाह घट जाएगा।

पहले से ही गंगा और ब्रह्मपुत्र पर बाँध बनाने, मुख्यतया बिलकुल उससे पहले जहाँ यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है वहाँ फरक्का बैराज़ के निर्माण, के कारण ना केवल उस देश में जल का प्रवाह घट गया है बल्कि मिट्टी भी लवणयुक्त हो गई है, जिसके कारण खेती करना लगभग नामुमकिन हो गया है।

माना जा सकता है कि भारत और बांग्लादेश के बीच के संबंध, जोकि नदी के जल के मुद्दे को लेकर पहले से ही तनावपूर्ण हैं, आईएलआर कार्यक्रम का क्रियान्वयन करने से गंभीर रूप से खराब हो सकते हैं।

आईएलआर के प्रस्तावक इस मत पर कायम हैं कि इससे संबंधित चुनौतियों के होने के बावजूद, इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन ज़रूर किया जाना चाहिए। पंडित का कहना हैं, “इसका कोई विकल्प नहीं है। हमें यह करना होगा।” वे इसमे आगे कहते हैं कि, “हालांकि कि ‘हमारी जल संबंधी समस्याओं का समाधान करें’ जैसी कोई बात नहीं है, आईएलआर कार्यक्रम की प्रत्येक संधि (जोड़) अपने क्षेत्र में समस्या को गंभीरता को कम करेगी।”

पर्यावरण कार्यकर्ता और जल विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर का कहना है कि क्योंकि “भू-जल भारत की जीवनरेखा है, आवश्यक है कि जल नीति, कार्यक्रम और परियोजनाएं इस पर ध्यान केन्द्रित करें और इसको वरीयता दें कि इस भू-जल की जीवनरेखा को किस प्रकार बनाकर रखा जाए।”

वे इंगित करते हैं कि, आईएलआर के द्वारा इस लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता नहीं मिलेगी। ठक्कर के अनुसार, भारत को हमारे उपलब्ध जल संसाधनों को परिस्थिति के अनुसार उपयोग में लेने को वरीयता देनी चाहिए और “वर्षा के जल को संग्रहित करने पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि इससे हमें भू-जल को बनाए रखने में सहायता मिल सकती है।”

धर्माधिकारी का कहना है कि, प्रत्येक क्षेत्र के कृषि-पर्यावरण-जलवायु सबंधी विशिष्ट लक्षणों के साथ मिलान करने के लिए आवश्यक है कि भारत अपनी कृषि और अन्य आजीविका संबंधी व्यवस्थाओं, के साथ-साथ फसलों को विकसित करे। आवश्यक रूप से क्षेत्रों की जल की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए ही अन्य आर्थिक गतिविधियों, जैसे की उद्योगों, हेतु स्थान का चयन किया जाना चाहिए।”

वैज्ञानिकों, अभियंताओं, सामाजिक वैज्ञानिकों, जल विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक श्रृंखला समूह शक्तिशाली लाबी के विरुद्ध डटकर खड़ा हुआ है। अब यह देखना शेष है कि क्या सरकार विशेषज्ञों के द्वारा प्रकट की गई चिंताओं पर ध्यान देगी या नहीं। [आईडीएन-InDepthNews – 22 अप्रेल 2018]

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