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फोटो: कुतुप्पलोंग शरणार्थी शिविर, कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश।यह शिविर उन तीन शिविरों में से एक है जिनमें बर्मा में अंतर-सांप्रदायिक हिंसा से बच कर भागे हुए लगभग 300,000 रोइंग लोग रह रहे हैं। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स

म्यांमार “बंगाली” समस्या को हल करने के लिए श्रीलंका से सीख सकता है

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फोटो: कुतुप्पलोंग शरणार्थी शिविर, कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश।यह शिविर उन तीन शिविरों में से एक है जिनमें बर्मा में अंतर-सांप्रदायिक हिंसा से बच कर भागे हुए लगभग 300,000 रोइंग लोग रह रहे हैं। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स

जयश्री प्रियालाल* द्वारा

सिंगापुर (आईडीएन) – रोहंगिया संकट और शरणार्थियों का भारी संख्या में बांग्लादेश की ओर प्रवाह का मुद्दा वर्तमान में मीडिया में छाया हुआ है। एक श्रीलंकाई के रूप में मैं पूर्व में श्रीलंका और वर्तमान में म्यांमार में इस राष्ट्रीयता के विवाद की समानता को समझ सकता हूँ। भारत के साथ इस संकट को हल करने का श्रीलंका का दृष्टिकोण म्यांमार द्वारा अनुसरण के लिए एक रूपरेखा प्रदान कर सकता है।

1948 में जब श्रीलंका ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ तब इस द्वीपीय राष्ट्र में करीब 10 लाख तमिल थे जिन्हें श्रीलंका में “भारतीय तमिल” कहा जाता था। इन निम्नतम दलित वर्ग के लोगों को अंग्रेजों द्वारा सिंहली किसानों की जब्त की हुई भूमि पर लगाए गए चाय बागानों में काम करने के लिए दक्षिण भारत से लाया गया था, जहाँ कि उन सिंहली किसानों ने काम करने से इनकार कर दिया था। इस प्रकार इन तमिलों की उपस्थिति का सिंहलियों द्वारा जबर्दस्त विरोध किया गया। अंग्रेज़ों ने एक राष्ट्रविहीन समुदाय बना दिया जिसके नागरिक न भारतीय रहे न श्रीलंकाई।

राष्ट्रविहीनता किसी भी व्यक्ति में निराशा और लाचारी की भावना उत्पन्न कर सकती है भले ही उसकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। ऐसी स्थितियों से उत्पन्न होने वाली अनिश्चितता उन लोगों को अनकहे दुःख देती है जिन्हें इससे संघर्ष करना पड़ता है; इनमें से कई ग़रीब और निराश्रित हैं जैसा कि म्यांमार और बांग्लादेश के बीच तनाव की स्थिति में देखने को मिल रहा है।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार रखाइन प्रान्त में रोहंगिया समुदाय पर होने वाले सभी अत्याचारों के लिए म्यांमार सेना का हाथ है। म्यांमार सरकार का दावा है कि वे मुस्लिम चरमपंथी हैं, जिनकी पहचान अरखाइन रोहंगिया मुक्ति सेना के रूप में हुई है, जिन्होंने 25 अगस्त, 2017 को म्यांमार-बांग्लादेश सीमा पर 35 पुलिस पोस्टों और एक सैन्य शिविर पर हमला किया था। इस दिन रखाइन प्रान्त का सलाहकार आयोग जिसके मुखिया पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान हैं, अंतरिम रिपोर्ट जारी करने वाला था।जैसा कि म्यांमार सरकार का दावा है, सेना की कार्रवाई रखाइन के समस्त नागरिकों, जिनमें बंगाली भी शामिल हैं जो बहुत दयनीय परिस्थितियों में रह रहे हैं और हर प्रकार की हिंसा के शिकार हैं, को बचाने के लिए की गई थी।

मीडिया और लॉबी समूह म्यांमार राज्य काउंसेलर आंग सांग सू को इस ‘नस्लीय उन्मूलन’ की कार्रवाई को रोकने के लिए कदम नहीं उठाने पर दोष दे रहे हैं।दोष और आलोचना दो बातें हैं; आमतौर पर, सार्वजनिक सहानुभूति जीतने के लिए ध्यान आकर्षित करने के लिए मुद्दों को नाटकीय अंदाज़ में पेश किया जाता है। लेकिन, नीति निर्माताओं को उन मुद्दों के स्थायी समाधान के लिए भावनात्मक और तर्कसंगत दृष्टिकोण के बीच सही संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है, जो औपनिवेशिक शासन काल से बने हुए हैं।

यदि एआरएसए के हमलों के समय पर ध्यान दें, तो हम पाएंगे कि कोफ़ी अन्नान की रिपोर्ट जारी होने के अतिरिक्त, उन दिनों म्यांमार में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दौरा भी था, और साथ ही म्यांमार में मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए कुछ न करने पर सू की के खिलाफ उनके द्वारा सयुंक्त राष्ट्र की आम सभा में संबोधन की पूर्व संध्या पर अंतरराष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया अभियान भी चल रहा था। जब राज्य सलाहकार दबाव में नहीं आए तो सू की के आलोचक और मानवाधिकार लॉबी समूह ने उन्हें उनकी चुप्पी के लिए दोषी ठहरा रहे हैं।

20 वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा तीन कुख्यात बंटवारे कीये गए जिन्होंने दुश्मनी के बीज बोए और आतंकवाद की समस्या को जन्म दिया जिनके कारण आज तक लोग अनगिनत पीड़ाएं झेल रहे हैं।पहला: 15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान का विभाजन। दूसरा: 15 मई, 1948 को अरब और यहूदियों के बीच विभाजन और इसराइल राष्ट्र का गठन। तीसरा: उसी वर्ष (1948) बर्मा को भारत से अलग करना। यह इतिहास है।

इन भू-राजनीतिक निर्णयों ने कई संघर्षों को जन्म दिया और इन विवादित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में राष्ट्र विहीन और सवामित्व रहित होने की भावना उत्पन्न की। अक्सर, विभाजन को सही ठहराने के लिए पौराणिक मान्यताओं और विकृत ऐतिहासिक तथ्यों का उपयोग किया गया। आज़ादी के लिए संघर्ष को उचित ठहराने और मुद्दों के समाधान के लिए समूहों को सहायता और समर्थन देने के लिए हिंसा भड़कायी गई।

श्रीलंका (तब सीलोन) और म्यांमार (तब बर्मा) के सामने ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को नागरिकता देने की चुनौती थी, इन मजदूरों को औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजों द्वारा स्थापित बागानों में काम करने के लिए श्रम के एक सस्ते स्रोत के रूप में लाया गया था।

भाड़े के मजदूर अंग्रेजों द्वारा ईजाद किया दास व्यापार का एक वैकल्पिक तरीका था; जिसे कुशलता से क्रियान्वित किया गया। इसके लिए श्रमिक परिवारों को चुना गया, जिनकी पहचान ‘कुलियों’ के रूप में की गई, और उनसे अंग्रेजी में लिखे गए एक अनुबंध पर अंगूठे लगवाए गए। उनमें से कोई नहीं जानता था कि अनुबंध में क्या था; उन्हें नौकरी/काम का आश्वासन दिया गया लेकिन जब उन्हें स्टीमर पर सवार किया गया तब उन्हें नहीं पता था कि वे कहाँ जा रहे थे।

उनमें से कई जो भारतीय मूल के थे नहीं जानते थे कि वे कभी वापस नहीं लौट पाएंगे और कैरेबियन द्वीप समूह और फिजी जैसे सुदूर स्थानों पर गन्ने के खेतों में काम करते हुए राष्ट्रविहीन नागरिक बन कर रह जाएंगे। ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों के इन समूहों ने अंग्रेजी शब्दकोश को ‘सी’ से शुरू होने वाले तमिल भाषा के दो नए शब्द दिए: ‘करी’ और ‘कुली’। सौभाग्य से, कई औपनिवेशिक बागान अर्थव्यवस्थाओं में राष्ट्रविहीनता की समस्या का समाधान हो गया है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के लिए अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच तनाव बना हुआ है।

श्रीलंका में चाय बागानों में ठेके पर काम करने वाले भारतीय श्रमिकों की राष्ट्रविहीनता की समस्या का समाधान 1964 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और सिलोन के प्रधानमंत्री सिरिमावो बंदारानाइक के बीच हुए एक समझौता के माध्यम से हो गया था।दोनों देश प्रत्यावर्तन और नागरिकता प्रदान करने संबंधी समझौता कर के राष्ट्रविहीन नागरिकों को समाहित करने को सहमत हो गए। 1980 तक यह समस्या पूर्णतः सुलझा ली गई। लेकिन श्रीलंका में, बागानों में काम करने वाले इन हाशिए पर रह रहे समूहों के जीवन स्तर में सुधार के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

इसी तरह, बांग्लादेश और म्यांमार के बीच 1993 में एक समझौता हुआ, लेकिन बांग्लादेश सरकार के सामने म्यांमार की तानाशाही सैन्य सरकार से निपटने की कठिनाई थी। हमें 19 सितंबर, 2017 के अपने संबोधन के दौरान, म्यांमार राज्य काउंसलर सू की के कथित बयान का स्वागत करना चाहिए, जिसमें उन्होंने वैध रोहंगिया समुदाय को रखाइन प्रान्त में समाहित करने का संकेत दिया था।

इसी तरह, बांग्लादेश की प्रधान मंत्री शेख हसीना को भी रोहंगिया पीड़ितों का स्वागत करने और कष्टकर परिस्थियों में कॉक्स बाज़ार के अस्थायी शिविरों में शरण लिए हुए लोगों की सहायता और देखभाल करने के लिए श्रेय दिया जाना चाहिए।

इसलिए अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों को बांग्लादेश और म्यांमार की सरकारों द्वारा बातचीत और चर्चाओं के माध्यम से इस मुद्दे को हल करने के लिए (जैसे 1964 में भारत और सीलोन ने समझौता किया था) जोर देना चाहिए।

इस मुद्दे को बौद्ध और मुस्लिमों के बीच धार्मिक और सांप्रदायिक रंग दे कर हिंसा को समर्थन देना घातक साबित होगा। इस समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखे जाने की आवश्यकता है क्योंकि इसके शिकार लोग राष्ट्रविहीनता और निराशा की भावना के कारण दयनीय आर्थिक स्थिति में पहुँच गए हैं। कई अफ्रीकी क्षेत्रों को पार कर प्रवासियों के रूप में यूरोप जाने वाले शरणार्थियों की दुर्दशा एक अच्छा जीता-जागता उदाहरण है। 

सही निदान समाधान का आधा हिस्सा है, बशर्ते तथ्यों के साथ कारणों और प्रभावों को स्थापित किया गया हो। बांग्लादेश और म्यांमार में सत्तासीन दोनों दोनों महिलाएं अपने-अपने देशों में दीर्घकालिक शांति और समृद्धि के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण के साथ रचनात्मक और अभिनव समाधान खोजने की क्षमता रखती हैं।बस एक उचित माहौल बनाने की आवश्यकता है जो भावनाओं को न भड़काए और नस्लीय-धार्मिक भेद-भाव की भावना उत्पन्न न करें।

*लेखक सिंगापुर स्थित वित्त, व्यावसायिक और प्रबंधन समूह, यूएनआई ग्लोबल यूनियन एशिया-प्रशांत के क्षेत्रीय निदेशक हैं। [आईडीएन-InDepthNews – 25 सितंबर 2017]

फोटो: कुतुप्पलोंग शरणार्थी शिविर, कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश।यह शिविर उन तीन शिविरों में से एक है जिनमें बर्मा में अंतर-सांप्रदायिक हिंसा से बच कर भागे हुए लगभग 300,000 रोइंग लोग रह रहे हैं। क्रेडिट: विकिपीडिया कॉमन्स

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